1. लोकतंत्र में सत्ता की साझेदारी ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्न )
1. लोकतंत्र विविधताओं में सामंजस्य कैसे स्थापित करता है ?
उत्तर- लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था का सबसे बड़ा गुण है कि इसमें विविधताओं में सामंजस्य स्थापित करने की अभूतपूर्व क्षमता होती है। लोकतांत्रिक समाज में विभिन्न समूहों और वर्गों के लोग निवास करते हैं और उनमें टकराव होता. रहता है। इन टकरावों में सामंजस्य स्थापित करने की क्षमता ही किसी शासन पद्धति की सफलता का द्योतक है। लोकतंत्र के अन्तर्गत सभी तरह के लोग सद्भावपूर्ण एवं शांतिमय जीवन व्यतीत करते हैं। भेद-भाव के बावजूद भी आपस में मिल-जुल कर रहते हैं। यदि टकराव होता है तो लोकतांत्रिक व्यवस्था उसे दूर करने में समर्थ हो जाती है। भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी विभिन्न धर्म, जाति तथा समुदाय के लोगों के लिए ऐसे कदम उठाए गए हैं जिससे लोग सद्भावपूर्ण सामाजिक जीवन व्यतीत कर सकें। इसके लिए अल्पसंख्यकों के हितों का भी ध्यान रखना चाहिए। साथ ही यह भी बरतनी चाहिए कि वंश, धर्म, धन, जन्म, सम्प्रदाय के आधार पर नागरिकों को सत्ता में भागीदारी से वंचित नहीं किया जाए।
2. लोकतांत्रिक व्यवस्था में नियंत्रण और संतुलन की व्यवस्था से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर- सरकार के कई महत्त्वपूर्ण अंग होते हैं, जो सत्ता के भिन्न-भिन्न रूपों का प्रयोग करते हैं। जैसे न्याय संबंधी कार्य न्यायपालिका, कानूनों के निर्माण संबंधी कार्य विधायिका और कानून का पालन संबंधी कार्य कार्यपालिका। ये त्रिअंगी बँटवारा सरकार के अंगों की स्वतंत्रता तो निर्धारित करता है, किंतु साथ ही साथ संविधान स्थापित करता है। इसी को ‘नियंत्रण और संतुलन की व्यवस्था’ कहा जाता है।
3. सामाजिक विभेदों का लोकतांत्रिक राजनीति पर क्या प्रभाव पड़ता है ?
उत्तर- सामाजिक विभेदों का लोकतांत्रिक राजनीति पर गहरा प्रभाव पड़ता है। अंगरेजों ने ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीति का सहारा लेकर भारत में सामाजिक विभेद को बढ़ाया और लगभग दो सौ वर्षों तक यहाँ शासन किया। वर्तमान समय में भी राजनीतिज्ञों के लिए यह एक कारगर अस्त्र बना हुआ है। राजनीतिक दलों द्वारा उम्मीदवारों के चयन और उनकी जीत सुनिश्चित करने में सामाजिक विभेद सहायक हो जाते हैं और यही कारण है कि विभिन्न राजनीतिक दल अपनी प्रतिद्वंद्विता का आधार भी सामाजिक विभेद को बना लेते हैं। उत्तरी आयरलैंड में एक ही धर्म माननेवाले भी प्रोटेस्टेंट एवं कैथोलिक समूहों में विभक्त हैं। वहाँ के दो प्रमुख राजनीतिक दल भी इसी आधार पर गठित हैं।
4. सामाजिक विभेदों का लोकतंत्र पर पड़नेवाले प्रभावों का सोदाहरण वर्णन करें।
उत्तर- सामाजिक विभेदों का प्रभाव लोकतंत्र पर अवश्य पड़ता है। यह प्रभाव प्रायः खतरनाक ही सिद्ध होता है। सामाजिक विभेदों का लोकतंत्र पर दुर्भाग्यपूर्ण प्रभाव यह है कि किसी-किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में सामाजिक विभेद व्यवस्था को इतना प्रभावित कर देता है कि वहाँ सामाजिक विभेदों की ही राजनीति हावी हो जाती है। जब सामाजिक विभेद राजनीतिक विभेद में परिवर्तित हो जाता है तब लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए खतरनाक हो जाता है। ऐसा होने पर लोकतांत्रिक व्यवस्था का ही विखंडन हो जाता है। इसे उदाहरण के साथ समझाया जा सकता है। यूगोस्लाविया में धर्म और जाति के आधार पर सामाजिक विभेद इस हद तक बढ गया कि वहाँ सामाजिक विभेद की राजनीति हावी हो गई। यह यूगोस्लाविया के लिए खतरनाक सिद्ध हुआ। यूगोस्लाविया कई खंडों में बँट गया।
यगोस्लाविया के उदाहरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि सामाजिक विभेद लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए खतरनाक है। परंतु, इसे अक्षरशः स्वीकार नहीं किया जा सकता। अनेक लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में सामाजिक विभेद रहते हए भी देश के विघटन की स्थिति नहीं आती है। सत्य तो यह है कि अधिकांश लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में सामाजिक विभेद रहते ही हैं। यह खतरनाक नहीं बने, इसके लिए कल सावधानियाँ बरतने की आवश्यकता है। भारत और बेल्जियम में सामाजिक विभेद रहते हुए भी यह लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए खतरा नहीं है।
5. क्या भारतीय समाज के सामाजिक विभेद समाज में संघर्ष ‘कारण है? व्याख्या करें।
उत्तर- भारत जैसे विशाल देश में विविधता स्वभाविक है। एक क्षेत्र में वाले विभिन्न जाति, धर्म, भाषा, संप्रदाय के लोगों के बीच विभिन्नताएँ होती सामाजिक विभेद कहलाती है। विभेद, को राष्ट्र की जीवन शक्ति बनाने के विविधता में एकता, सामंजस्य, सहिष्णुता और सहयोग स्थापित करने की आवा होती है। परंतु ये विभेद जब वंश, रंग, जाति, धर्म, संप्रदाय, धन, क्षेत्र के पर सामाजिक विभाजन, पृथकता और प्रतिद्वंद्विता का रूप ले लेते हैं तब पार संघर्ष का कारण बन जाते हैं। अपनी पहचान के प्रति आग्रह और दूसरे के दुराग्रह की भावना राष्ट्रीय पहचान के ऊपर अपनी पहचान और राष्ट्रहित से अपने समुदाय, जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषाई हित की प्राथमिकता समाज में संघ जन्म देती है। इनमें सामंजस्य का प्रयास राष्ट्रीय एकता और राष्ट्रीयता को मत प्रदान करता है। राष्ट्रीय पहचान को सुदृढ़ कर. संघर्षों की स्थिति को समाप्त किया जा सकता है।
6.“भविष्य में लोकतंत्र के ऊपर जिम्मेवारियाँ और बढ़ती जाएगी स्पष्ट करें।
उत्तर- लोकतंत्र विभिन्नताओं से भरा है। यहाँ पर प्रत्येक व्यक्ति को अपनी नाम रखने का अधिकार है। परिणामस्वरूप यहाँ पर एक मत नहीं हो पाता और समस्या और भी जटिल हो जाती हैं। जातिवाद, धार्मिक भेदभाव, क्षेत्रवाद इत्यादि धीरे-धीरे और विकराल रूपले रहे हैं। लोकतंत्र इन सबों के बीच सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास करता है। लोकतंत्र सामाजिक विभिन्नताओं से भरा है। प्रत्येक समूह की अपनी माँग होती है यदि इसकी पूर्ति संभव नहीं हुई तो टकराव की स्थिति उत्पन्न होती है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि ज्यों-ज्यों समय बीत रहा है लोकतंत्र की चुनौतियाँ भी बढ़ती जा रही हैं। इसकी जिम्मेवारियाँ भी इसी प्रकार से बढ़ती जा रही हैं।
7. सत्तर के दशक से आधुनिक दशक के बीच भारतीय लोकतंत्र का सफर (सामाजिक न्याय के संदर्भ में) का संक्षिप्त वर्णन करें।
उत्तर- भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में 1970 का दशक कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है।
सन् 1971 में ,श्रीमती इंदिरा गाँधी के नेतृत्व में काँग्रेस सत्ता में आई। उसके बाद श्रीमती गाँधी ने संविधान के बुनियादी ढाँचे में परिवर्तन करने का प्रयास किया । 1975 में उन्होंने देश के अंदर आपातकाल की उद्घोषणा कर जिस ढंग से लोकतंत्र का विश्लेषण किया, उसके विरोध में सरकार विरोधी जनसंघर्ष तेज हुए और ये जनसंघर्ष लोकतंत्र को बड़े पैमाने पर प्रभावित किए। 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी।। इस प्रकार अब तक भारतीय लोकतंत्र का सफर अनेक उतार-चढ़ावों के साथ चलता रहा। इसके साथ-साथ समाज के प्रत्येक नागरिक को समान अवसर प्रदान करने के लिए सरकार ने अनेक घोषणाएँ की जैसे अतिपिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण, महिलाओं को पंचायत स्तर पर राजनीति में प्रवेश के लिए आरक्षण, सूचना का अधिकार कानून, दहेज प्रथा पर रोक हेतु सख्त कानून, समान नागरिक संहिता इत्यादि।
8. साम्प्रदायिकता के किन्हीं चार कारणों को लिखें।
उत्तर- साम्प्रदायवाद भारतीय समाज की एक बहुत बड़ी समस्या है जिसन समाज को न केवल कमजोर किया है, बल्कि अनेक समस्याओं को भी जन्म दिया है। इसके मुख्य कारण इस प्रकार हैं –
(i) जिन-जिन स्थानों पर विभिन्न समुदायों के आवासीय क्षेत्र एक दूसरे स अलग है, वहाँ सामूहिक तनाव अधिक बढ़ा है।
(ii) भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान साम्प्रदायिक राजनीतिक दलों का – गठन हो गया। मुस्लिम लीग और विश्व हिन्दू परिषद इसके उदाहरण हैं। एक-दूसरे के विरुद्ध भड़काने में इनकी भूमिका रहती है।
(iii) जब दो समूहों के बीच पारस्परिक घृणा और द्वेष बढ़ जाता है तब साम्प्रदायिक दंगे होते हैं। दोनों समूहों के मन में भ्रामक विचार से यह समस्या उभरती है।
(iv) धार्मिक विभिन्नता के कारण विभिन्न सम्प्रदायों के रीति-रिवाज एवं सामाजिक मान्यताएँ भी एक-दूसरे से भिन्न होती है। परिणामस्वरूप विभिन्न समुदायों के बीच दूरी बढ़ जाती है।
9. “सिर्फ जाति के आधार पर राजनीति करके चुनाव जीतना संभव नहीं”। स्पष्ट करें।
उत्तर- लोकतंत्र विभिन्नता से भरा है, कभी भी जनता के बीच एक पार्टी या विचारधारा के ऊपर एक मत होना संभव नहीं हो पाता। ठीक उसी तरह किसी भी क्षेत्र में सिर्फ जाति के आधार पर राजनीति करके कोई चुनाव नहीं जीत सकता। इसका सबसे बड़ा कारण है कि यदि किसी राजनीतिक पार्टी के विचारों से यह स्पष्ट हो जाए कि यह अमूक जाति का पक्षधर है तो अन्य जातियाँ उसूसे नाराज हो सकती हैं।
दूसरी सबसे बड़ी समस्या है कि ऐसा कोई भी निर्वाचन क्षेत्र नहीं है जहाँ किसी एक ही जाति के वोटों के आधार पर चुनाव जीता जा सके।
10. जातिवाद के किन्हीं चार कुप्रभावों का उल्लेख करें।
उत्तर- जातिवाद के निम्नांकित चार कुप्रभाव हैं –
(i) समाज में रूढ़िवाद और सामाजिक कुरीतियों का विकास
(ii) विभिन्न जातियों के लोगों द्वारा एक-दूसरे को अश्रद्धा एवं घृणा की दृष्टि से देखने के कारण लोगों के बीच असमानता एवं फूट की भावना में वृद्धि ।।
(iii) जातिवाद के कारण राष्ट्र का अनेक समूहों. और टुकड़ों में बँट जाने के। कारण राष्ट्रीय एकता पर कुठाराघात ।
(iv) लोगों के व्यक्तित्व का स्वतंत्र रूप से विकास नहीं होने के कारण राष्ट्र की आर्थिक प्रगति में रुकावट
11. जातिवाद क्या है ? क्या बिहार की राजनीति में जातिवाद हावी है ?
उत्तर- जातिवाद भारत की एक मुख्य सामाजिक समस्या माना जाता रहा है। जाति- व्यवस्था से ही समाज में ऊँच-नीच की भावना पैदा हुई। कर्म के आधार पर . विकसित जाति-व्यवस्था जन्म के आधार को गले लगा ली जिसका समाज पर बुरा । प्रभाव पड़ा। आज जातिवाद केवल सामाजिक समस्या ही नहीं राजनीतिक समस्या भी बन गई है, क्योंकि जाति और राजनीति दोनों एक-दूसरे को प्रभावित करने लगी है। रजनी कोठारी ने इस संबंध में अपना विचार व्यक्त करते हुए सही कहा है कि आज हम जातिविहिन राजनीति की कल्पना नहीं कर सकते। उनका कहना सही है कि राजनीति में जातीयता का इतना प्रभाव हो गया है कि ‘बेटी और वोट अपनी जाति को दो’ का प्रचलन शुरू हो गया। भारत में ही नहीं; बिहार की राजनीति में भी जातिवाद हावी हो गया है। बिहार में भी राजनीति दलों द्वारा जाति के आधार पर उम्मीदवारों का चयन किया जाता है, सरकार में विभिन्न जातियों को प्रतिनिधित्व मिलता हैं तथा राजनीतिक दल’ जातीय भावनाओं को उकसाकर अपना उल्लू सीधा करते हैं। चनाव की प्रतिस्पर्धा में जातीय समीकरण उभरकर सामने आता हैं। बिहार में कभी अगडी और पिछड़ी जातियों में विभेद पैदा किया जाता है। कभी सवर्णों अर्थात अगडी जातियों के सहयोग से नया समीकरण बनाता है। एक वरिष्ठ चुनाव-विश्लेषक ने सही कहा है कि “बिहार के लोग अभी भी जातिवाद का चश्मा पहल रखा है, हाँ। उसका नंबर बदलता रहता है।”
12. परिवारवाद और जातिवाद बिहार में किस तरह लोकतंत्र को प्रभावित करता है ?
उत्तर- अधिकांश राजनीतिक दल एवं उनके नेता अपने परिवार एवं सगे-संबंधियों को राजनीति में लाने का प्रयास करती है। यही राजनीति में परिवारवाद है। वास्तव म यह लोकतंत्र को प्रभावित करता है। सामान्यतः प्रत्येक चुनाव में विशेष कर टिकट बटवारे के समय ऐसी परिस्थिति विशेष रूप से मुखरित होती है। हरेक दल के नेता अपने-अपने परिवार के भाई-भतीजे, रिश्ते-नाते के लिए पार्टी टिकट के बँटवारे में परवी करते नजर आते हैं। वास्तव में जनकल्याण अथवा जनसेवा की भावना से उनका कोई लेना देना नहीं होता है। राजनीतिक दल चुनाव के समय अपने कर्मठ कार्यकर्ताओं को दर किनार कर अपने परिवार को आगे बढ़ाते हैं। या सत्ता की प्राप्ति के बाद विभिन्न पदों पर आसीन करते हैं। कुछ दिनों पहले विधानसभा के उप-चुनाव में जनता दल (यू०) ने घोषणा की थी कि पार्टी कार्यकर्ताओं के रिश्तेदारों को टिकट नहीं दी जाएगी तो पार्टी में काफी बवाल मचा था।
13. हर सामाजिक विभिन्नता सामाजिक विभाजन का रूप नहीं लेती। कैसे ?
उत्तर- यह कोई जरूरी नहीं कि हर सामाजिक विभिन्नता सामाजिक विभाजन का रूप ले ले। सामाजिक विभिन्नता के कारण लोगों में विभेद की विचारधारा अवश्य बनती है, परंतु यही विभिन्नता कहीं-कहीं पर समान उद्देश्य के कारण मूल का काम भी करती है। सामाजिक विभाजन एवं विभिन्नता में बहुत बड़ा अंतर है। सामाजिक विभाजन तब होता है जब कुछ सामाजिक अंतर दूसरी अनेक विभिन्नताओं से ऊपर और बड़े हो जाते हैं। संवर्णों एवं दलितों के बीच अंतर एक सामाजिक विभाजन है, क्योंकि दलित संपूर्ण देश में आम तौर पर गरीब, वंचित एवं बेघर हैं तथा भेदभाव के शिकार हैं, जबकि सवर्ण आमतौर पर सम्पन्न एवं सुविधायुक्त हैं। अर्थात् दलितों को महसूस होने लगता है कि वे दूसरे समुदाय के है। परंतु, इन सबके बावजूद जब क्षेत्र अथवा. राष्ट्र की बात होती है तो सभी एक हो जाते हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि हर सामाजिक विभिन्नता सामाजिक विभाजन का रूप नहीं लेती।
14. सामाजिक विभाजनों की राजनीति का परिणाम किन-किन चीजों पर निर्भर करता है ?
उत्तर- सामाजिक विभाजनों की राजनीति का परिणाम तीन चीजों पर निर्भर करता है।
प्रथम- नागरिक अपनी पहचान स्व-अस्तित्व तक सीमित रखना चाहते हैं, क्योंकि प्रत्येक मनुष्य में राष्ट्रीय चेतना के अलावा उपराष्ट्रीय या स्थानीय चेतना भी होती है। कोई एक चेतना बाकी चेतनाओं की कीमत पर उग्र होने लगती है तो समाज में असंतुलन पैदा हो जाता है।
द्वितीय- दूसरा महत्त्वपूर्ण तत्त्व है कि किसी समुदाय या क्षेत्र विशेष की माँगों को राजनीतिक दल कैसे उठा रहे हैं ?
तृतीय- सामाजिक विभाजन की राजनीति का परिणाम सरकार के रूप पर भी निर्भर करता है। यह भी महत्त्वपूर्ण है कि सरकार इन मांगों पर क्या प्रतिक्रिया व्यक्त करती है।
लोकतंत्र में सामाजिक विभाजन की राजनीतिक अभिव्यक्ति एक सामान्य बात है और एक स्वस्थ राजनीति का लक्षण भी।
15. सामाजिक विभाजन के तीन निर्धारक तत्त्व कौन-कौन से हैं ?
उत्तर-सामाजिक विभाजन के तीन निर्धारक तत्त्व इस प्रकार से हैं
I. स्वयं की पहचान की चेतना- यह इस बात को दर्शाता है कि व्यक्ति अपनी पहचान किस प्रकार बनाए रखता
है किसी धर्म विशेष, जाति विशेष अथवा संप्रदाय पर आधारित। इस प्रकार के सामाजिक विभाजन के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति यह समझे कि उसकी राष्ट्रीय पहचान क्या है?
II. समाज के विभिन्न समुदायों की माँगों को राजनीतिक दलों द्वारा उपस्थित करने का तरीका क्या है? अलग-अलग समुदाय के लोगों की अपने हित के लिए अलग-अलग माँगें होती हैं, जैसे श्रीलंका में तमिलों द्वारा अपने लिए अलग क्षेत्र की माँग थी।
III. सरकार की माँगों के प्रति सोच सामाजिक विभेद की राजनीति के परिणाम सरकार को विभिन्न समुदायों की माँगों के प्रति सोच पर भी निर्भर करते हैं। विभेद की राजनीति के अच्छे परिणाम के लिए आवश्यक है कि सरकार विभिन्न समुदायों के उचित माँग को नजर-अंदाज नहीं करे।
16. परिवार के भीतर किस प्रकार लैंगिक भेदभाव किये जाते हैं? समझावें।
उत्तर- भारतीय समाज पुरुष प्रधान समाज है। परिवार में भी लड़कों को ही प्राथमिकता दी जाती है। लड़के और लड़कियों के पालन-पोषण के क्रम में परिवार में ही यह भावना पनप जाती है कि भविष्य में लड़कियों की मुख्य जिम्मेवारी गृहस्थी चलाने और बच्चों के पालन-पोषण तक ही सीमित होगी। यहीं से लैंगिक भेदभाव की शुरुआत देखी जाती है। महिलाओं का काम खाना बनाना, कपड़ा धोना, बच्चों का पालन-पोषण आदि तक ही सीमित है। शिक्षा देने के मामले में भी लड़कों को अधिक प्राथमिकता दी जाती है। यही कारण है कि आज पुरुष 82 प्रतिशत साक्षर हैं जबकि सिर्फ 65 प्रतिशत महिलाएँ ही साक्षर हैं।
17. भ्रूण-हत्या क्या है? क्या कानून इसे रोकने में सफल हुआ है ?
उत्तर- भारत में अभी भी महिलाओं की स्थिति संतोषजनक नहीं है। आज भी पुत्री का जन्म शोक का विषय बना हुआ है। भ्रूण-हत्या की परंपरा स्थापित हो गई है। अत्याधुनिक उपकरणों की सहायता से गर्भ में ही शिशु (भ्रूण) के लिंग की जानकारी प्राप्त हो जाती है। पुत्री के जन्म की आशा में गर्भ में ही उसकी हत्या कर दी जाती है। इसे ही भ्रूण हत्या कहते हैं। इसको रोकने के लिए कानून बन चुके हैं, परंतु अभी तक आशातीत सफलता नहीं मिली है। इस पर रोक के लिए कानून के साथ-साथ लोगों की सोच भी बदलनी होगी।
18. ‘महिला आरक्षण विधेयक’ क्या है ? आपके अनुसार यह विधेयक विधान (कानून) क्यों नहीं बन पा रहा है ?
उत्तर- जनता की प्रतिनिधि संस्थाओं में सत्ता की साझेदारी में महिलाओं को अधिक स्थान देने के उद्देश्य से कई कदम उठाए जा चुके हैं। भारतीय संविधान के 73 वें और 74 वें संशोधन द्वारा देशभर में ग्रामीण एवं नगरीय स्थानीय संस्थाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत स्थान आरक्षित कर दिए गए हैं। बिहार में पंचायती संस्थाओं में महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण दिया गया है। भारत के संसद और राज्य विधानमंडलों में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत स्थान आरक्षित करने के लिए संसद में विधेयक उपस्थित किया जा चुका है। इसे ही ‘महिला आरक्षण विधेयक’ कहते हैं। इस विधेयक के विधान (कानून) बन जाने से भारत की संसद और राज्य विधानमंडलों का चेहरा पूरी तरह से बदला नजर आएगा। इस विधेयक को विधान बनने के रास्ते में अनेक बाधाएँ हैं। कई पुरुष राजनीतिज्ञों को अपनी सीट से वाचत होने की शंका है। अतः ऐसे पुरुष राजनीतिज्ञ. प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष ढंग से इसका विरोध कर रहे हैं। कुछ राजनीतिज्ञों ने इस विधेयक के विधान बनने के रास्ते में यह अडंगा लगा दिया है कि दलित, पिछड़ी और अल्पसंख्यक महिलाओं के लिए अलग से आरक्षण की व्यवस्था की जाए। इसका अर्थ यह हुआ कि ऐसे लोग ‘आरक्षण के अंदर आरक्षण’ के पक्ष में हैं। कुछ लोग 33 प्रतिशत की जगह 20 प्रतिशत आरक्षण के पक्ष में हैं। कुछ लोग चाहते हैं कि अभी सीट यथावत रहे और 33 प्रतिशत सीटों में ही वृद्धि कर महिलाओं की संसद में साझेदारी बढ़ा दी जाए। इस परिस्थिति में निकट भविष्य में इसके विधान बनने की आशा बहुत कम दिखाई दे रही है।
19. स्वतंत्र भारत में नारियों की स्थिति में सुधार लाने के लिए सरकार द्वारा कौन-कौन-से उपाय किए गए हैं ?
उत्तर- भारत की कुल आबादी में लगभग 48 प्रतिशत नारियाँ हैं। स्वाभाविक है कि नारियों की उन्नति पर ही भारत का विकास निर्भर है । केवल पुरुषों की उन्नति से संपूर्ण भारत का विकास संभव नहीं है। यही कारण है कि स्वतंत्र भारत में नारियों की स्थिति में सुधार लाने के लिए सरकार द्वारा महत्त्वपूर्ण कदम उठाए गए हैं। कुछ महत्त्वपूर्ण कदम इस प्रकार हैं
(i) कानूनों द्वारा संरक्षण- भारत सरकार ने नारियों की स्थिति में सुधार के लिए कानूनों का भी सहारा लिया है। अनेक कानून बनाए गए जिससे उनकी स्थिति में सुधार हो सके। उदाहरण के लिए, कानून द्वारा ही लड़कियों के विवाह के लिए 18 वर्ष की आयु निश्चित की गई है। पति से अलग होने पर भी स्त्रियों को भरण-पोषण के लिए एक निश्चित राशि पाने की व्यवस्था कानून बनाकर कर दी गई है। नारियों को भी विरासत की संपत्ति पर अधिकार दिया गया है। उनके साथ किए जानेवाले विभिन्न गलत व्यवहारों को अपराध घोषित किया गया है।
(ii) शिक्षा की व्यवस्था- नारियों की शिक्षा के लिए भी सरकार ने अनेक उपाय किए हैं। उनके लिए अनेक शिक्षण संस्थानों को स्थापित किया गया है। शिल्पकला, शिशुपालन, गृह-उद्योग जैसे क्षेत्र में महिलाओं को प्रशिक्षित करने की व्यवस्था की गई है। सरकार के प्रयास का ही फल है कि आज स्त्रियों की साक्षरता की प्रतिशतता में दिनोदिन वृद्धि होती जा रही है।
(iii) स्वरोजगार की व्यवस्था- महिलाओं को स्वरोजगार प्राप्त करने के लिए। भी सरकार ने अनेक कदम उठाए हैं। ग्रामीण महिला और शिश विकास योजना बनाई गई है, जो ड्वाकरा के नाम से जानी जाती है। यह कार्यक्रम भारत के अनेक जिलों में चल रहा है। वास्तविक रूप से स्वरोजगार पाने में यह योजना सहायक सिद्ध हुई है।
(iv) संविधान में संरक्षण- भारत के संविधान में नारियों की स्थिति में सधार. के लिए अनेक प्रावधान किए गए हैं। संविधान की दृष्टि में स्त्री और पुरुष दोनों को समान माना गया है। लिंग के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जा सकता है। दोनों को समान अधिकार दिए गए हैं और कानून के समक्ष समानता के सिद्धांत को स्वीकार किया गया है। नौकरी और रोजगार पाने में अवसर की समानता दी गई है तथा वयस्क मताधिकार के क्षेत्र में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया गया है। नारियों के स्वास्थ्य की रक्षा के लिए विशेष प्रावधान किए गए हैं।
20. सामाजिक अंतर कब और कैसे सामाजिक विभाजनों का रूप ले लेते हैं ?
उत्तर- समाज में व्यक्ति के बीच कई प्रकार के सामाजिक अंतर देखने को मिलते हैं जैसे जाति के आधार पर अंतर, आर्थिक स्तर पर अंतर, धर्म पर अंतर अथवा भाषायी अंतर। ये अंतर तब सामाजिक विभाजन का रूप ले लेते हैं जब इनमें से कोई एक सामाजिक अंतर दूसरी अनेक विभिन्नताओं से ऊपर और अधिक शक्तिशाली हो जाता है। जब किसी एक समह को यह महसस होने लगता है कि वह समाज में बिल्कल अलग है तो उसी समय सामाजिक विभाजन प्रारंभ हो जाता है। श्रीलंका में भाषायी आधार पर ही सामाजिक विभाजन हो गया था. जब तमिल भाषा बोलने वाले लोगों की सरकार द्वारा उपेक्षा करते हए सिर्फ सिंहली भाषा बोलने वालों के पक्ष में संविधान का निर्माण किया गया था। दुनिया के अधिकतर देशों में किसी न किसी किस्म का सामाजिक विभाजन है और इन सबकी शुरुआत सामाजिक अंतरों के साथ ही होती है।
21. पंचायती राज के मुख्य उद्देश्यों का उल्लेख करें।
उत्तर- पंचायती राज के मुख्य उद्देश्य हैं –
(i) ग्रामीण क्षेत्र की स्थानीय संस्थाओं को वास्तविक शक्तियाँ सौंपकर लोकतंत्र का आधार मजबूत करना
(ii) स्थानीय मामलों के कार्यों में ग्रामीणों की अधिक साझेदारी सुनिश्चित करना
(iii) ग्रामीण क्षेत्रों में उपलब्ध मानव संसाधनों तथा अन्य संसाधनों का सही प्रयोग करना
(iv) ग्रामीणों के बीच आत्मनिर्भरता एवं सामुदायिक भावना को विकसित करना
(v) ग्रामीण क्षेत्र में सामुदायिक विकास योजनाओं को मूर्त रूप देना ।
(vi) ग्रामीण क्षेत्र के कमजोर वर्ग के लोगों को भी मुख्यधारा से जोड़ना, अर्थात् ग्रामीण विकास योजनाओं में हाथ बँटाने का अवसर देना।
22. ग्राम सभा के संगठन और कार्यों का वर्णन करें।
उत्तर- गाँव के सभी वयस्क नागरिक ग्राम सभा के सदस्य होते हैं। ग्राम सभा की बैठक समय-समय पर होती रहती है। बैठक की अध्यक्षता मुखिया करता है। राज्य सरकार द्वारा निर्मित कानून के अनुसार ही इसे कार्य संपन्न करना पड़ता है। इसके मुख्य कार्य हैं –
(i) ग्राम से संबंधित विकास योजनाओं के कार्यान्वयन में सहायता प्रदान करना।
(ii) ग्राम के अंदर वयस्क शिक्षा के कार्यक्रम को सफल बनाना।
(iii) परिवार कल्याण कार्यक्रम की सफलता में योगदान देना।
(iv) ग्रामीणों के बीच एकता और सौहार्द्र बढ़ाना।
(v) स्वैच्छिक श्रमिकों का सहयोग प्राप्त करना।
23. त्रिस्तरीय पंचायती राज-व्यवस्था से आप क्या समझते हैं ? बिहार में इसका क्या स्वरूप है ?
उत्तर- प्रजातांत्रिक विकेंद्रीकरण के सिद्धांत को ही मूर्त रूप देने के लिए भारत में ‘पंचायती राज’ की स्थापना की गई है। भारत में पंचायती राज’ की स्थापना के उद्देश्य से ही भारत सरकार ने बलवंतराय मेहता की अध्यक्षता में एक कामाट का नियक्ति की थी। इस कमिटि ने भारतीय लोकतंत्र की इमारत को मजबूत करन का आवश्यकता पर बल दिया। इसके लिए उसने प्रजातांत्रिक विकेंद्रीकरण के सिद्धांत को लागू करने की सिफारिश की। इस कमिटि ने निम्नलिखित सुझाव दिए २. सरकार को अपने कुछ कार्यों और उत्तरदायित्वों से मुक्त हो जाना चाहिए और उन्हें एक ऐसी संस्था को सौंप देना चाहिए जिसके क्षेत्राधिकार के अंतर्गत विकास के सभी कार्यों की पूरी जिम्मेदारी रहे। सरकार सिर्फ इन संस्थाओं का पथ-प्रदर्शन और निरीक्षण करती रहे। सरकार को चाहिए कि वह अपने कार्यक्षेत्र को उच्च कोटि की योजनाओं तक ही सीमित रखे।
24.“गाँधी जी ने कहा था कि धर्म को राजनीति से अलग नहीं किया जा सकता” इसका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर- गाँधी जी ने अपने इस बयान में किसी एक धर्म अथवा संप्रदाय को राजनीति से जोड़ने की बात नहीं की थी, बल्कि उनका यह मानना था कि भारतीय राजनीति का आधार धार्मिक विचारों से मिलने वाले नैतिक मूल्य होने चाहिए न कि अलगाववाद। उनका मानना था कि राजनीति का संचालन धर्म के द्वारा स्थापित सुविचारों एवं नैतिक मूल्यों के द्वारा होनी चाहिए ताकि एक लोक कल्याणकारी सत्ता की स्थापना हो सके।
भारतीय संविधान निर्माताओं ने इसका पूरा ख्याल रखा और संविधान के भाग-4 में वर्णित नीति-निर्देशक तत्त्वों में इसकी झलक देखने को मिलती है।
25.. राजनीति में धर्म एक समस्या के रूप में कब सामने आता है ?
उत्तर- राजनीति में धर्म एक समस्या के रूप में तब खड़ा हो जाता है जब –
(i) धर्म को राष्ट्र का आधार मान लिया जाता है।
(ii) राजनीति में धर्म की अभिव्यक्ति एक समुदाय विशेष की विशिष्टता के लिए की जाती है।
(iii) राजनीति किसी धर्म विशेष के दावे का पक्षपोषण (support) करने लगते
(iv) किसी धर्म विशेष के अनुयायी दूसरे धर्मावलंबियों के खिलाफ मोर्चा खोलने लगता है। ऐसा तब होता है जब एक धर्म के विचारों को दूसरे धर्म के विचारों से श्रेष्ठ माना जाने लगता है और एक धार्मिक समूह अपनी मांगों को दूसरे समूह के विरोध में खड़ा करने लगता है। इस प्रक्रिया में राज्य अपनी सत्ता का उपयोग किसी एक धर्म विशेष के पक्ष में करने लगता है तो समस्या और गहरी हो जाती है तथा दो धार्मिक समुदाय में हिंसात्मक तनाव (Riot) शुरू हो जाता है। . राजनीति में धर्म को इस तरह इस्तेमाल करना ही संप्रदायिकता (communalism) कहलाती है।
26. भारतीय किसान यूनियन की सफलता पर प्रकाश डालें।अथवा, भारतीय किसान आंदोलन की मुख्य माँगें क्या थी ?
उत्तर- भारतीय किसान यूनियन किसानों के हितों का प्रबल समर्थक है। महेंद्र सिंह टिकैत जैसे जुझारू नेता के नेतृत्व में इसने पर्याप्त सफलता प्राप्त की। भारतीय किसान यनियन ने अपनी मजबूत संगठन क्षमता के बल पर सरकार से अपनी मांगों को मनवाने में सफलता प्राप्त की। मेरठ के समाहर्ता के समक्ष उन्होंने डेरा-घेरा डालकर विद्युत-शुल्क की बढ़ी हुई दरों को वापस लेने में सफलता प्राप्त की। यह उनकी बहत बडी सफलता थी। उन्हें स्थानीय लोगों का भरपूर समर्थन एवं सहयोग मिला। इस प्रकार, समय-समय पर इस यूनियन ने सरकार के समक्ष अनेक माँगें रखी। उनमें कुछ माँगों पर सरकार ने निश्चय ही ध्यान दिया है। 1990 के शुरुआती वर्षों में भारतीय किसान यूनियन ने लगभग सभी राजनीतिक दल-समूहों से अपने को दूर रखने का यथासंभव प्रयास किया। यह संगठन अपने सदस्यों की विशाल संख्या के बल पर राजनीति में एक दबाव समूह की भूमिका में अवश्य ही किसी-न-किसी प्रकार मौजूद था और उसकी यही भूमिका उसकी माँगों को मान लिए जाने का एक ठोस आधार सिद्ध हुई।
Geography ( भूगोल ) दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
1 | भारत : संसाधन एवं उपयोग |
2 | कृषि ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ) |
3 | निर्माण उद्योग ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ) |
4 | परिवहन, संचार एवं व्यापार |
5 | बिहार : कृषि एवं वन संसाधन |
6 | मानचित्र अध्ययन ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ) |
History ( इतिहास ) दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
1 | यूरोप में राष्ट्रवाद |
2 | समाजवाद एवं साम्यवाद |
3 | हिंद-चीन में राष्ट्रवादी आंदोलन |
4 | भारत में राष्ट्रवाद |
5 | अर्थव्यवस्था और आजीविका |
6 | शहरीकरण एवं शहरी जीवन |
7 | व्यापार और भूमंडलीकरण |
8 | प्रेस-संस्कृति एवं राष्ट्रवाद |
Political Science दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
1 | लोकतंत्र में सत्ता की साझेदारी |
2 | सत्ता में साझेदारी की कार्यप्रणाली |
3 | लोकतंत्र में प्रतिस्पर्धा एवं संघर्ष |
4 | लोकतंत्र की उपलब्धियाँ |
5 | लोकतंत्र की चुनौतियाँ |
Economics ( अर्थशास्त्र ) दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
1 | अर्थव्यवस्था एवं इसके विकास का इतिहास |
2 | राज्य एवं राष्ट्र की आय |
3 | मुद्रा, बचत एवं साख |
4 | हमारी वित्तीय संस्थाएँ |
5 | रोजगार एवं सेवाएँ |
6 | वैश्वीकरण ( लघु उत्तरीय प्रश्न ) |
7 | उपभोक्ता जागरण एवं संरक्षण |