विधुत धारा के चुंबकीय प्रभाव ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ) Vidyut Dhara ke chumbkiya Prabhav class 10th science question answer for Matric exam 2022
Vidyut Dhara ke chumbkiya Prabhav : विद्युत धारा के चुंबकीय प्रभाव क्लास 10th विज्ञान क्वेश्चन आंसर मैट्रिक परीक्षा 2022 के लिए यहां पर दिया गया है तथा आप विद्युत धारा के चुंबकीय प्रभाव चैप्टर का ऑब्जेक्टिव क्वेश्चन का पीडीएफ यहां से डाउनलोड कर सकते हैं। class 10th science objective and subjective question Bihar board Matric exam 2022. Vidyut Dhara ke chumbakiy Prabhav vvi question answer in Hindi pdf download
1. विधुत चुंबकीय प्रेरण की परिघटना को समझावें ।
उत्तर ⇒ चित्र में AB एक कुंडली दिखाया गया है। B सिरे से एक चुंबक के N ध्रुव को तेजी से कुंडली में घुसाया जाता है तो गैलवेनोमीटर के सूई में विक्षेप उत्पन्न होता है। अगर चुम्बक को झटके से कुंडली के गर्भ से बाहर निकाला जाता है तो सूई में विक्षेप विपरीत दिशा में होती है। चुंबक या कुंडली के गति में रहने पर क्षणिक विद्युत विभव उत्पन्न होता है, और कुंडली में क्षणिक विद्युत धारा बहती है। चुंबक कुंडली के गर्भ में स्थिर छोड़ दिया जाए तो कोई विक्षेप उत्पन्न नहीं होता है। यह चुंबकीय प्रेरण की परिघटना को दर्शाता है।
2. घरेलू विधुत परिपथों में से एक परिपथ का व्यवस्था आरेख खींचें।
उत्तर ⇒ घरेलू वायरिंग में तीन तार-जीवित तार (लाल रंग का), उदासीन तार (काले रंग का) तथा भूसंपर्क तार (हरे रंग का) लगे होते हैं। प्रत्यावर्ती धारा जीवित तार से प्रवाहित होती हुई उदासीन तार से लौटती हुई मानी जाती है। भूसंपर्क तार जमीन के अंदर लगभग 5 मीटर गड़ी होती है जिसे धातु के एक प्लेट में बाँध कर गाड़ दिया जाता है। परिपथ 15 A और 5A के बनाए जाते हैं। 15 A के परिपथ में हीटर, रेफ्रीजरेटर, विद्युत इस्तिरी चलाये जाते हैं और 5 A के परिपथ में बल्ब, पंखा आदि जोड़े जाते हैं। 15 A के लाइन को पावर लाइन और 5A के लाइन कोघरेलू लाइन कहा जाता है।
नीचे एक घरेलू परिपथ का नमूना दिया गया है –
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3. विधुत परिपथ में काम करते समय कौन-सी सावधानियाँ बरती जाती हैं ?
उत्तर ⇒ विधुत परिपथ में काम करते समय निम्नांकित सावधानियाँ बरतनी चाहिए
(i) विधुत परिपथ में काम करते समय हाथ में दस्ताना, पैर में जूता और बदन ढका होना चाहिए।
(ii) वैसे युक्तिओं का इस्तेमाल करना चाहिए जिसमें अचालक पदार्थ का मूठ लगा हो।
(iii) अधिक शक्ति के उपकरणों जैसे हीटर, गीजर, इस्त्री, टोस्टर, रेफ्रीजरेटर आदि के धात्विक आवरण को भू-तार से संपर्कित कर लिया जाए ताकि इस धात्विक आवरण का विभव शून्य रहे और विद्युत झटका से बचाव हो।
(iv) उचित अनुमतांक का फ्यूज उपयोग करें।
(v) स्वीच, प्लग, सॉकेट तार के जोड़ों पर संबंधन अच्छे से कसे होना चाहिए । इससे आग लगने की संभावना नहीं रहेगी।
(vi) परिपथ जोड़ने में उचित मुटाई के तार ही जोड़ें ताकि तार न जले।
(vii) तारों के संबंधन की जगह विद्युतरोधी टेप का व्यवहार करना चाहिए।
(viii) अगर किसी व्यक्ति को विद्युत झटका लगा हो तो हाथों से उसे नहीं छना चाहिए बल्कि अचालक पदार्थ (लकड़ी) आदि से झटका देकर छुड़ाना चाहिए।
(ix) सो विधुत झटका लगे व्यक्ति को किसी सूखे बिछावन पर लेटाकर डॉक्टर की सलाह लेनी चाहिए।
4. डायनेमो क्या है ? इसके क्रिया सिद्धांत और कार्यविधि का सचित्र वर्णन करें।
उत्तर ⇒ डायनेमो ऐसी युक्ति है जिसके द्वारा यांत्रिक ऊर्जा को विद्यत-ऊर्जा में बदला जाता है। इसकी क्रिया विद्युत-चुंबकीय-प्रेरण के सिद्धांत पर आधारित है। इसमें तार की एक कुण्डली ABCD होती है, जो एक प्रबल नाल-चुंबक के ध्रुवों के बीच क्षैतिज अक्ष पर चुंबकीय क्षेत्र में घूर्णन करती है। चित्र में घूर्णन की दिशा दक्षिणावर्ती दिखलायी गयी है। गतिशील चालक के प्रेरित धारा चालक गति की दिशा एवं चुंबकीय क्षेत्र की दिशा के बीच के कोण की ज्या (sine) के समानुपाती होती है। घूर्णन के क्रम में कुण्डली जब चुम्बकीय क्षेत्र के लंबवत् रहती है, जिस कारण इसमें प्रेरित धारा शून्य होती है। किन्तु घूर्णन के क्रम में कुण्डली जब चुंबकीय क्षेत्र के समान्तर हो जाती है, तब इसकी AB भुजा की गति की दिशा चुंबकीय क्षेत्र दिशा के लंबवत् होती है, जिस कारण इसमें महत्तम धारा प्रेरित होती है। एक पूर्ण घूर्णन के क्रम में कुण्डली दो बार चुंबकीय क्षेत्र की दिशा के लंबवत् और दो बार समान्तर होती है, जिससे एक पूर्ण घूर्णन में AB भुजा में प्रेरित धारा दो बार शून्य होती है
और दो बार महत्तम होती है।
ABCD → कुंडली
NS → नाल चुंबक
R1R2 → विभक्त बलय
B1B2 → कार्बन ब्रश
इस तरह प्राप्त हुई धारा परिपथ में एक ही दिशा में प्रवाहित होती है। यही कारण है कि इस विद्युत जनित्र में दिष्ट धारा जनित्र या डायनेमो के नाम से जाना जाता है।
5. चुंबकीय क्षेत्र रेखाएँ क्या होती हैं ?
उत्तर ⇒ चुंबकीय क्षेत्र में वे रेखाएँ जिनके अनुदिश लौह चूर्ण स्वयं सरेखित होते हैं, चुंबकीय क्षेत्र रेखाओं का निरूपण करती है। चुंबकीय क्षेत्र एक ऐसी राशि है जिसमें परिमाण तथा दिशा दोनों होते हैं। किसी चुंबकीय क्षेत्र की दिशा वह मानी जाती है जिसके अनुदिश दिक् सूची का उत्तर ध्रुव उस क्षेत्र के भीतर गमन करता है। चुंबकीय क्षेत्र रेखाएँ चुंबक के उत्तर ध्रुव से प्रकट होती हैं तथा दक्षिण ध्रुव पर विलीन हो जाती है। चुंबक के भीतर चुंबकीय क्षेत्र रेखाओं की दिशा उसके दक्षिण ध्रुव से उत्तर ध्रुव की ओर होती है। अतः चुंबकीय क्षेत्र रेखाएँ एक बंद वक्र होती है। दो क्षेत्र रेखाएँ एक दूसरे को प्रतिच्छेद नहीं करती हैं। दोनों ध्रुवों पर क्षेत्र रेखाएँ काफी संघन होती हैं।
6. स्थायी चुंबक और विधुत चुंबक में अंतर बतावें ।
उत्तर ⇒ स्थायी चुंबक और विद्युत चुंबक में निम्नांकित अंतर हैं :
स्थायी चुंबक | विधुत चुंबक |
1. स्थायी चुंबकीय गुण प्राप्त करता | | 1. जब तक धारा बहती है तभी तक यह चुंबक है |
2. ध्रुव निश्चित रहता है। | 2. धारा की दिशा को बदलने पर ध्रुव बदल जाता है। |
3. चुंबकीय शक्ति ज्यों-का-त्यों रहता है। | 3. चुंबक की शक्ति बदला जाता है जब कुण्डली में तार के फेरों की संख्या बदल जाय और धारा बदल जाय |
4. विचुंबकीत आसानी से नहीं होग। | 4. आसानी से विचुंबकीत हो जाता है |
7. प्रत्यावर्ती धारा और दिष्ट धारा में क्या अन्तर है ?
उत्तर ⇒ प्रत्यावर्ती धारा और दिष्ट धारा में अन्तर इस प्रकार है –
प्रत्यावर्ती धारा (A.C) | दिष्ट धारा (D.C) |
1. धारा का मान तथा दिशा समय के साथ बदल जाते हैं। | 1. केवल दिष्ट धारा का परिमाण बदलता है । |
2. इसे आसानी से उत्पन्न किया जा सकता है। | 2. इसे उत्पन्न करने में कठिनाई किया जा सकता है। |
3. इसे सुगमतापूर्वक डी०सी० में रूपान्तरित किया जा सकता है | 3. इसे ए०सी० में बदलने में काफी कठिनाई होती है |
4. यह डी०सी० की अपेक्षा घातक होता है | 4. यह ए०सी० की अपेक्षा कम अधिक घातक होता है |
5. यह चालक के ऊपरी सतह पर प्रवाहित होता है। | 5. यह चालक के भीतरी भाग से प्रवाहित होता है। |
8. प्रत्यावर्ती धारा से कौन-कौन से लाभ हैं ?
उत्तर ⇒ प्रत्यावर्ती धारा से निम्नलिखित लाभ – हैं
(i) ट्रॉन्सफार्मर की सहायता से इसका विधुत वाहक बल बढ़ाया या घटाया जा सकता है । इस क्रिया में विद्युत ऊर्जा का क्षय नगण्य है। यही कारण है कि बड़े-बड़े कल कारखानों में प्रत्यावर्ती धारा का उपयोग होता है। डी० सी० धारा में ऐसी सुविधा प्राप्त नहीं है।
(ii) इसका विधुत वाहक बल बढ़ाकर दूर-दूर तक भेजा जा सकता है।
(iii) इस धारा के विद्युत वाहक बल को कम करके 6 V की बत्ती को भी
जलाया जा सकता है।
(iv) प्रत्यावर्ती धारा को चोक कुंडली द्वारा अत्यल्प ऊर्जा हानि पर नियंत्रित किया जा सकता है।
–
9. विधुत मोटर का नामांकित आरेख खींचिए। इसका सिद्धांत तथा कार्यविधि स्पष्ट कीजिए । विधुत मोटर में विभक्त वलय का क्या महत्त्व है ?
अथवा, विधुत मोटर क्या है ? इसका सिद्धान्त लिखें तथा इसकी कार्य-विधि का सचित्र वर्णन करें।
अथवा, विधुत मोटर का सिद्धान्त सहित वर्णन कीजिए।
उत्तर ⇒ विधुत मोटर एक ऐसी घूर्णन शक्ति है जिसमें विद्युत ऊर्जा का यांत्रिक ऊर्जा में रूपांतरण होता है।
सिदान्त – जब किसी कुण्डली को चुंबकीय क्षेत्र में रखकर उसमें धारा प्रवाहित की जाती है तो कुण्डली पर एक बल युग्म कार्य करने लगता है, जो कुण्डली को उसी अक्ष पर घुमाने का प्रयास करता है। यदि कुण्डली अपनी अक्ष पर घूमने के लिए स्वतन्त्र हो तो वह घूमने लगती है।
संरचना – विधुत मोटर में भर विद्युतरोधी तार की एक आयताकार कुण्डली ABCD होती है। यह कुण्डली किसी चुंबकीय क्षेत्र के दो ध्रुवों के बीच इस प्रकार रखी होती है कि इसकी भुजाएँ AB तथा CD चुंब कीय क्षेत्र की दिशा के लम्बवत् रहे । कुण्डली के दो सिरे विभक्त वलय के दो अर्द्धभागों P तथा Q से संयोजित होते हैं। इन अर्द्धभागों की भीतरी सतह विद्युतरोधी होती है तथा धुरी से जुड़ी होती है। “R तथा Q के बाहरी चालक सिरे क्रमशः दो स्थिर चालक ब्रुशों X और Y से स्पर्श करते हैं।
कार्य-प्रणाली – बैटरी से चलकर ब्रुश X से होते हुए Z से विधुत धारा कुण्डली ABCD में प्रवेश करती है तथा चालक ब्रुश Y से होते हुए बैटरी के दसरे टर्मिनल पर वापस भी आ जाती है। कुण्डली में विधुत धारा इसकी भुजा AB में A से B की ओर तथा भजा CA में C से D की ओर प्रवाहित होती है। अत: AB तथा CD में विधुत धारा की दिशाएँ परस्पर विपरीत होती है। चुंबकीय क्षेत्र में रखे विधुत धारावाही चालक पर आरोपित बल की दिशा ज्ञात करने के लिए फ्लेमिंग का वामहस्त नियम अनुप्रयुक्त करने पर पाते हैं कि भुजा AB पर आरोपित बल इसे अधोमुखी धकेलता है, जबकि भुजा CD पर आरोपित तल इसे उपरिमुखी धकेलता है। इस प्रकार किसी अक्ष पर घूमने के लिए स्वतंत्र कुण्डली तथा धरी वामावर्त घूर्णन करते हैं। आधे घूर्णन में Q का सम्पर्क ब्रुश X से होता है तथा P का सम्पर्क ब्रुश Y से होता है । अतः, कुण्डली में विधुत धारा उत्क्रमित होकर पथ DCBA के अनुदिश प्रवाहित होती है। विधुत मोटर में विभक्त वलय दिक् परिवर्तक का कार्य करता है, अर्थात परिपथ में विधुत धारा के प्रवाह को उत्क्रमित करता है।
10. चालक, अचालक, अर्द्धचालक एवं अति चालक से आप क्या समझते हैं ? सोदाहरण व्याख्या करें।
उत्तर ⇒ चालक – ऐसा पदार्थ जिससे होकर विधुत आवेश एक जगह से दूसरी जगह आसानी से चले जाते हैं, चालक कहलाता है। दूसरे शब्दों में जिन पदार्थों की विशिष्ट चालकता काफी अधिक होती है, चालक कहलाता है। चालक पदार्थों में मुक्त इलेक्ट्रॉनों की संख्या काफी अधिक होती है। जैसे-सोना, चाँदी, ताँबा, लोहा, ऐल्युमिनियम, नमकीन घोल इत्यादि।
अचालक-ऐसे पदार्थ जिनसे होकर विधुत आवेश प्रवाहित नहीं हो सकते हैं, अचालक कहलाते हैं। दूसरे शब्दों में ऐसा पदार्थ जिनकी विशिष्ट चालकता बहुत ही कम होती है, अचालक कहलाता है। अचालक पदार्थ में मुक्त इलेक्ट्रॉन नहीं होते हैं। जैसे-सल्फर, काँच, रबड़, प्लास्टिक, सूखी लकड़ी आदि।
अर्धचालक – ऐसे पदार्थ जिनकी विशिष्ट चालकता अचालक तथा चालक पदार्थों की विशिष्ट चालकता के बीच होती है, इन पदार्थों में मुक्त इलेक्टॉनों की संख्या अल्प होती है अर्द्धचालक कहते हैं। उदाहरणः जर्मेनियम एवं सिलिकान। अर्द्धचालक का उपयोग ट्रांजिस्टर, ‘डायोड तथा कम्प्यूटर के लिए स्मरण युक्तियों के निर्माण में किया जाता है।
अतिचालक – ऐसे पदार्थ जिनमें अतिनिम्न ताप पर (निरपेक्ष शून्य के निकट) पर बिना किसी प्रतिरोध के विधुत का गमन होता है अति चालक कहलाते हैं तथा यह घटना अतिचालकता कहलाती है। जैसे-शीशा, जिंक, ऐल्युमिनियम, पारा आदि।
11. निम्नलिखित की दिशा को निर्धारित करने वाला नियम लिखिए –
(i) किसी विधुत धारावाही सीधे चालक के चारों ओर उत्पन्न चंबकीय क्षेत्र,
(ii) किसी चुंबकीय क्षेत्र में, क्षेत्र के लंबवत स्थित, विधुत धारावाही सीधे चालक पर आरोपित बल, तथा
(iii) किसी चुंबकीय क्षेत्र में किसी कंडली के घूर्णन करने पर उस कंडली में उत्पन्न प्रेरित विधुत धारा ।
उत्तर ⇒ (i) दक्षिण हस्त अंगुष्ठ नियम –
यदि आप अपने दाहिने हाथ में विधुतधारा
वाही चालक को इस प्रकार पकड़े हुए हैं
कि चुंबकीय आप का अंगूठा विधुत धारा
की दिशा की क्षेत्र – ओर संकेत करता है
तो आप की अंगुलियाँ चालक के चारों ओर
चुंबकीय क्षेत्र की क्षेत्र विद्युत धारा रेखाओं की
दिशा में लिपटी होंगी। इसे चित्र दक्षिण हस्त
अंगुष्ठ नियम दक्षिण हस्त अंगुष्ठ नियम कहते हैं ।
चित्र – दक्षिण हस्त अंगुष्ठ नियम
(ii) फ्लेमिंग का वाम हस्त नियम –
अपने वामहस्त के अंगूठे, तर्जनी के मध्यमा
चुंबकीय क्षेत्र अंगुली को इस प्रकार फैलाएँ
कि वे परस्पर समकोण बनाएँ। तर्जनी चुंबकीय
क्षेत्र को निर्दिष्ट करेगी। मध्य अंगुली धारा के प्रवाह
की दिशा को बताएगी और अंगूठा चालक की दिशा
को प्रवाहित करेगा।
चित्र –फलेमिंग का वाम हस्त नियम
(iii) फ्लेमिंग का दक्षिण हस्त नियम – अपने दाहिने हाथ की तर्जनी, मध्यमा अंगुली तथा अंगूठे को इस प्रकार फैलाइए कि ये तीनोंएक-दूसरे के परस्पर लंबवत हों। यदि तर्जनी चुंबकीय क्षेत्र की दिशा की ओर संकेत करती है तथा अंगुठा चालक की गति को दिशा की ओर संकेत करता है तो मध्यम चालक में प्रेरित विद्यत धारा की दिशा दर्शाती है।
चित्र – फ्लेमिंग का दक्षिण हस्त नियम
12. विधुत जनित्र क्या है ? नामांकित आरेख खींचकर किसी विधुत जनित्र का मूल सिद्धांत तथा कार्यविधि स्पष्ट कीजिए। इसमें बुशों का क्या कार्य है ?
अथवा, स्वच्छ चित्र की सहायता से विधुत जनित्र का सिद्धान्त एवं क्रिया प्रणाली की व्याख्या कीजिए।
अथवा, विधुत जेनरेटर से आप क्या समझते हैं ? यह किस सिद्धांत पर कार्य करता है ? इसकी बनावट एवं क्रिया विधि का वर्णन करें।
उत्तर ⇒ प्रत्यावर्ती धारा प्राप्त करने के विधुत उपकरण को विधुत जनित्र कहते है।
सिद्धांत – जनित्र इस सिद्धांत पर आधारित है कि किसी चालक में प्रेरित धारा तब उत्पन्न होती है जब इससे संबंधित चुंबकीय रेखाओं में परिवर्तन होता है । उत्पन्न विधुत धारा की दिशा फ्लेमिंग के दायें हाथ के नियम के अनुसार होती है ।
फ्लेमिंग का दायें हाथ का नियम – अपने दायें हाथ के अंगूठे, तर्जनी और मध्यमा अंगुली को इस प्रकार फैलाएँ कि प्रत्येक एक-दूसरे के साथ समकोण बनाए तो तर्जनी चुंबकीय क्षेत्र की ओर संकेत करती है, अंगूठा चालक की गति की दिशा को प्रदर्शित करता है और मध्यमा अंगुली कुंडली में उत्पन्न विधुत धारा की दिशा को देखती है।
किसी साधारण प्रत्यावर्ती जनित्र में निम्नलिखित प्रमुख भाग होते हैं –
1. आर्मेचर – इसमें मृद लोहे की क्रोड पर तांबे की तार की अवरोधी बड़ी संख्या में कुंडली ABCD होती है। इसे आर्मेचर कहते हैं। इसे एक धुरी पर लगाया जाता है जो गिरते पानी, हवा या भाप की सहायता से घूम सकती है।
2. क्षेत्र चुंबकव – कुंडली को शक्तिशाली चुंबकों के बीच स्थापित किया जाता है। छोटे जनित्रों में स्थायी चुंबक लगाए जाते हैं। पर बड़े जनित्रों में विधुत चुंबकों का प्रयोग किया जाता है । ये चुंबकीय क्षेत्र को उत्पन्न करते हैं।
3. स्लिप रिंगज – धातु के दो खोखले रिंग R, और R, को कुंडली की धुरी पर लगाया जाता है। कुंडली के AB और CD को इनसे जोड़ दिया जाता है। आर्मेचर के घूमने के साथ R, और R, भी साथ-साथ घूमते हैं।
4. दो कार्बनिक ब्रशों B, और B, से विद्युत धारा को लोड तक ले जाया जाता है। चित्र में इसे गैल्वनोमीटर से जोड़ा गया है जो विधुत धारा को मापता है।
कार्य विधि – जब कुंडली को चुंबक के ध्रुवों N और S के बीच घड़ी की सूई को विपरीत दिशा घुमाया जाता है तब AB नीचे और CD ऊपर की दिशा में जाता है। उत्तरी ध्रुव के निकट AB चुंबकीय रेखाओं को काटती है और CD ऊपर दक्षिणी ध्रव के निकट रेखाओं को काटती है। इससे AB और DC में प्रेरित धारा उत्पन्न होती है। फ्लेमिंग के दायें हाथ के नियमानुसार विद्युत धारा B से A और D से C की ओर बहती है। प्रभावी विद्युत धारा DCBA की दिशा में चलता है। आधे चक्कर के बाद कुंडली के AB और DC अपनी स्थिति को बदल लेते हैं । AB दायीं तरफ और DC बायीं तरफ हो जाएगा इससे AB ऊपर तथा DC नीचे की ओर हो जाएंगे। इस परिवर्तन के कारण कुंडली में धारा की दिशा आधे घुमाव के बाद उलट जाएगी। दो सिरों की धन और ऋण ध्रुवण भी परिवर्तित हो जाएगी। हमारे देश में 50Hz प्रत्यावर्तन धारा का प्रयोग किया जाता है। इसलिए कुंडली को एक सैकेंड में 50 बार घुमाया जाता है। एक चक्कर में धारा अपनी दिशा को 2 बार बदलती है।
इस व्यवस्था में एक ब्रश उस भजा के साथ संपर्क में रहता है जो चुबकाय क्षेत्र में ऊपर की ओर गति करती है। इसका ब्रश सदा नीचे की ओर गति करन वाली भुजा के संपर्क में रहता है।
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